बुधवार, 27 अक्तूबर 2010

My Childhood Poems continue...

मैं  (२३-अक्टूबर १९९५)
मैं किससे कहूँ, मैं दिलसे इन्सान बुरा तो नहीं,
ये सूरत, ये आवाज़, मैंने खुद बनाई तो नहीं,
दिल की आरजू अपने आशियाने में दफ़न होती है,
मैं क्या कहूँ तक़दीर ने मेरे साथ बेवफाई की है.
मेरी हालत, मेरी आदत, मेरे साये से भी नफ़रत है,
मैं कोई इन्सान हूँ, उन्हें इस बात पे भी शक है,
वक्त के थपेड़ों से घायल हो कर बैठा हूँ,
एक इंतजार है, रूठी बहारें लौट आयेगी.
फसफां जान कर बहुत पछताना होगा,
सिर्फ गुल से नहीं, काँटों से भी दिल लगाना होगा.

तुम (२९-क्तोबेर१९९५)

जहाँ के सामने मैं भले तरी तस्सवुर न करता हूँ,
तन्हाई के हर घडी में मै तेरी सज़दे में होता हूँ.
तू जन कर अनजान है, कैसे बताऊंगा तुम्हे,
हर लम्हा जो गुजरने वाला है, तेरी ही अमानत है.
तुम भले न थे मेरे साथ, मैंने तुम्हे महसूस किया,
जहाँ जहाँ भी गया तेरे साये का दीदार किया.
महफ़िल में मुस्कुराता था औरों के लिए भी,
तनहाइयों  में रोता था सिर्फ तेरे लिए मैं.
मैं तेरा मुकम्मल नहीं बस कुछ शै मांगता हूँ,

तूं याद कर ले मुझे, खुद को खुशनसीब समझूंगा.
कुछ पल भी मेरे खातिर जो तुम सोच लोगे,
मैं संझुंगा, मेरा भी वहां आशियाना है.

नया वर्ष
विदा हो चुके हैं, विदा होने वाले,
ये रुत है कुछ ऐसी , कुछ ऐसी फिजां है,
कोई भी कह दे की आ चुके हैं,
सनम आनेवाले सनम आनेवाले.
दे सबको ख़ुशी का पैगाम ऐसा,
हँसता रहे बस ये गुलशन हमेशा.
टूटे शाख तब ही, जब वक्त होए,
खिले गुल ऐसा जो गुलशन महका दे.
तोहफे शांति का मिल जाये जहाँ को,
बदल जाये जिससे रुत यहाँ का हमेशा.
यही सोचता हूँ मेरे राह वालों ,
नया वर्ष होए हम सबको मुबारक.

गिला (२७-जून-१९९६)
गैरों से गिला होता तो कहता उनसे,
उसी ने ठोकर दी है गिला कहता जिनसे.
वो रिश्ता जिस पर कभी नाज़ था मुझको,
अचानक पराई सी लगाने लगी है.
सब कहते हैं वो अपने हैं,
मैं रोता हूँ, वे हंसते हैं.
ये दर्द कहीं जो बह निकला,
डर है वो भी  न बह जाएँ.
इस डर से मैं सुन सिमट रहा,
सब समझ रहे मैं बागी हूँ.
कल सपने थे, अब शायद अपने है,
कल क्या होंगे मैं क्या जानूं.

जाने क्या क्या आज बने हैं
जश्नों पे गम छाये हैं, अपने घर में बुत बनें हैं.
गैरों से तो बस गैर हैं, अपनों से ही अछूत बने है.
कौन कहेगा न जाने क्या, ये डर हमदम आज बने हैं.
कोमल मन कहने से डरता, यहाँ तो तिल भी ताड़ बने हैं.
कभी ख़ुशी की लाली जो थी, वो भी गम से स्याह बने हैं.
जो हम चुप हैं, सब कहते हैं, चाणक्य के प्रतिरूप बने हैं.
हंसी रुकी है, चुप्पी चुप है, पागल से प्रतिरूप बने हैं.
बदल रहा हूँ हर छन मैं तो, जाने क्या क्या अज बने हैं.

दर्द

जो दर्द मेरे दिल में है, दफ़न रहे तो अच्छा है,
निकल पैदा करेगा गम, औरों को भी देगा गम.
ना है हमसफ़र साथ कोई चलों बस ये भी अच्छा है.


जो दर्द मेरे दिल में है, दफ़न रहे तो अच्छा है,
गम के शिव क्या बाँट सकता, इस जहाँ की भीड़ में,
ढूंढ़ता उस शख्स को जो दे सकें खुशियाँ मुझे,
वो भी गम में न डूब जाएँ, न मिले तो अच्छा है.
जो दर्द मेरे दिल में है, दफ़न रहे तो अच्छा है,

My Childhood Poems continue...

याद   (२०-अक्टूबर-१९९४)
ऐ याद गुजारिस करता हूँ , तू लौट कभी फिर आ जाना.
अश्को तुम भी कुछ शेष रहो, सब आज कहीं मत बह जाना.
तनहा मन तुझे पुकारेगा, तू लौट दूर से आ जाना.
अश्कों के संग मिल कर सरे गम दूर भगा जाना.
हर इन्सान में तेरा डेरा, हर रही को ये तडपना.
सोते भी समय जागते भी समय, चुपके से तुम्हारा आ जाना.

रिश्ता-नाता  (१५-दिसम्बर-१९९४)
यूँ छोड़ कर जा रहे हैं, जैसे कोई नाता न था,
लगता है एक दिन रूह भी यूँ ही फ़ना होगी.
ना साया होगा, न बदन होगा, ना यादें होगी,
रूह के साथ सब कुछ यूँ ही फ़ना होगी.
तलबगार बन कर दुनियां की क्या पाओगे,
क्या है तुम्हारे पास क्या रह जायेगा बाकी.
जाते समय तुम दुनिया को अपनी ख़ाक भी दोगे,
क्या देगी जहाँ क्या बदले में लोगे?


याद-II  (२६-मार्च-१९९५)
यादों पे याद के पैबंद लेगे जाते हैं,
देखते-देखते कल आज में बदल जाते हैं.
कहो कैसे प्यार औ वादे निभाए जाते हैं,
जिनको चाहा वो गिरगिट से बदल जाते हैं.
नये चेहरे से डरता हूँ पुराने याद आते हैं,
कुछ लोग हैं ऐसे जो रिश्ते भूल जाते हैं.
एक पल गुजारना भी दूभर हो जाता है,
गुजरे हुए किस्से, जब याद आते हैं.
सभी को संजोना मुमकिन नहीं लगता,
एक के एक रफते से गुजर जाते हैं.

खुदा (२२-अप्रैल-१९९५)

बहुत बार तेरा भी नूर मैंने देखा,
मगर दिल में सुबह-इ-हरम जल रहा था.
मेरा दर्द दिल में दफ़न हो गया,
जुबान पे तू खुद ब खुद आ रहा था.
मेरे सिसक में भी तू ही छिपा था,
मेरी खिशी में भी तू हंसा था.
शायद  मैं तुम से दूर हो गया था,
इसलिए तुमने दर्दे दिल दे दिया था.

जहाँ (१५-मे-१९९५)
इस जहाँ को सच न समझना, ये झूठा फ़साना है. 
इसे गलती से जन्नत न समझ लेना, ये गम का आशियाना है.
आहात के दर्द को, फितरत समझ हँसता है,
अपनी फितरत को, नेकी का शिला कहता है.
गुलशन में मुस्कुरा हमराह बनता है,
वीराने में पहचनने तक से इनकार करता है.
मेरी तम्मनाओं की बुनियाद पर अपनी विला बनता है,
उस तरफ मेरे रुख करने पे भी एतराज़ करता है.
वक्त के मारे को दीवाना समझता है,
मै तो सकी था मुझे मैकस समझता है.

साथ १५-जुलाई-१९९५
पहले तो कुछ उम्मीद थी, आब वो भी फ़ना हो गयी,
कुछ यादें दर्दें दे मुझे, खुद से भी जुदा हो गए.
कोई अफशोश न होता, साथ चाँद लम्हा गुज़ारे न होते,
कुछ वक्त साथ गुजर कर, अश्क औ तड़प दे गए.
तुझसे था अनजान अच्छी थी वो दुरी,
छोटी सी दूरी पात कर, लम्बी सी खाई कर गए.
सुर्ख लाली जिस चमन से पाई थी तुने,
चमन, चमन ही रहा, तू ही हाफ़िज़ हो गए.

वो ८-जुलाई-1995
मेहरबान हो बहुत , बस ख्वाबें ही दिखाई,
पर न दिए, सिर्फ परिंदे ही दिखाई.
तड़प के कह रहा हूँ आज, मैं हासिल करूंगा,
हर ख्वाब सुनहरी जिसने दिन रात रुलाई.
मुझे तुमसे कोई गिला नहीं तो हमदर्दी भी नहीं,
वक्त से मुझे वैसे ही बहुत दर्द मिलें हैं.
तेरी हमदर्दी तुझे मुबारक हो,
उन हंसते हुए चेहरों से बहुत रस्क होता है.
तेरे इशारों  पे वक्त भी भले मेरा साथ न दे,
हर कदम उठती रहेगी मंजिलों को पाने को.
तुम अपनी अमानत भी बाखुशी वापस ले सकते हो,
मैं इंतज़ार करूंगा बाद के अनज़ामों का.

मजिल (११-अगस्त-१९९५)
मेरे हसरत जल कर ख़ाक हो गए,
गैर तो गैर अपना भी अपना न हुआ.
वैसे भी ये दिल कभी गम से खाली न हुआ,
कभी ओठ मुस्कुराई तो आँखे हंस न सकी.
कुछ क्षण का जो कभी सुकून मिला,
आँखे तो हंसी मगर लैब हील न सके.
ज़माने से ठोकरें ही ठोकरें मिलती रही,
मैं तड़प तदप के भी जीता ही रहा.
बेबसी के दिखाए नक़्शे कदम पर चलता ही रहा,
पलकें जो खुली तो मंजिल करीब थी.

रिश्ते (११-अगस्त-१९९५)
किसी शाख पर खिला कोई गुल हो,
ये रिश्ते कुछ ऐसे हंसी लग रहे थे,
मगर कुछ ऐसा फ़साना था उनका,
कुहांसे में सूरज, चंदा से दिख रहे थे.
माना की मुझे जरुरत थी,
मगर वो तो जरुरत मंद न थे.
किसी चटक की तरह मैं जी लेता,
अब दिखावे की तड़प से घायल हूँ.
उन्होंने तो तरस खाई होगी,
मैंने ही हकीकत समझा था.
उन्होंने तो खुद बेहतर ही किया,
मैं नसीब का मारा, कुछ और नहीं.

मंगलवार, 26 अक्तूबर 2010

My Childhood Poems

 ७-मार्च- १९९५
मेरे संग आ के मिलेगा क्या, मैं हूँ एक फ़साना दर्द भर.
सब लूट चुकी है ख़ुशी मेरी, मैं रह गया बस दर्द भर.
फूलें हैं लूटती खुसबू मगर मैं हूँ लूटता बस दर्द भर.
गैरों से मुहब्बत की थी, मुझे मिल गया बस दर्द भर.
अपनों से हुआ बेगानापन, मैं रह गया बस दर्द भर.
लोगों से मिला मैंने भी दी, बन गया फ़साना दर्द भर.
३-जुलाई-१९९४ 
जहाँ में रुला कर भेजा तुमने,  जायेंगे तो जी भर मुस्कुरंगे हम,
तेरा दिया हर चीज़ है कुबूल, गम दिया है तो हंस कर गुजरेंगें हम.
अब न ख़ुशी की आरजू करूँगा, जो दोगे वही हंस कर ले लेंगे हम.
हार कर मेरी दामन में खुशियाँ भरोगे, तुम से कुछ नहीं मांगेंगे हम.
तुम जो देते हो गम छुपा कर ख़ुशी, गम छुपा कर ख़ुशी से मुस्कुराएंगे हम.
मुस्कुराने की ताकत तुन दोगे मुझे, मुस्कुराएंगे  हम मुस्कुराएंगे हम.
तुम दोगे ख़ुशी इन्तहा तक मुझे, तभी फिर तेरे पास आयेंगे हम.
जहाँ में रुला कर भेजा तुमने,  आयेंगे  तो जी भर मुस्कुरंगे हम,
 १७-मार्च-१९९५ 
 वो दिन अब न लौटेंगे, अफसाने याद आते हैं,
कुछ आंसू जो निकलते हैं, उन्हें और पास लाते हैं.
अपने रह गए अपने, बगाने याद आते हैं,
अपना कह नहीं सकते, वो घर से दूर रहते हैं,
बेगाने कह नहीं सकते वो दिल के पास होते हैं.
1-अगस्त-१९९४
 खुशियाँ कभी मातम को अपने संग लाती है,
मातम कभी खुशियों का सेहरा बांध जाती है.
गिला है खुद के नज़रों से जो खा कर धोखा,
मातम को ख़ुशी औ ख़ुशी को मातम देख जाती है.
है वक्त का तकाजा, दिखती हुई बहारें, मिलाती हुई  मुहब्बत,
खिलाती गुल, मुरझाता फूल, तड़पता हुआअरमान,
धधकते दिल की ज्वाला ,बस एक फ़साना बन के रहती है.
संग-अ-वक्त बदलता है, तेरा वजूद औ उम्र, तेरा ज़माना,
तेरा हकीकत, तेरा दौलत, झूठ है तेरा अब तक का शोहरत,
क़यामत के घडी इन्सान अकेला हो के रहता है.