बुधवार, 27 अक्टूबर 2010

My Childhood Poems continue...

याद   (२०-अक्टूबर-१९९४)
ऐ याद गुजारिस करता हूँ , तू लौट कभी फिर आ जाना.
अश्को तुम भी कुछ शेष रहो, सब आज कहीं मत बह जाना.
तनहा मन तुझे पुकारेगा, तू लौट दूर से आ जाना.
अश्कों के संग मिल कर सरे गम दूर भगा जाना.
हर इन्सान में तेरा डेरा, हर रही को ये तडपना.
सोते भी समय जागते भी समय, चुपके से तुम्हारा आ जाना.

रिश्ता-नाता  (१५-दिसम्बर-१९९४)
यूँ छोड़ कर जा रहे हैं, जैसे कोई नाता न था,
लगता है एक दिन रूह भी यूँ ही फ़ना होगी.
ना साया होगा, न बदन होगा, ना यादें होगी,
रूह के साथ सब कुछ यूँ ही फ़ना होगी.
तलबगार बन कर दुनियां की क्या पाओगे,
क्या है तुम्हारे पास क्या रह जायेगा बाकी.
जाते समय तुम दुनिया को अपनी ख़ाक भी दोगे,
क्या देगी जहाँ क्या बदले में लोगे?


याद-II  (२६-मार्च-१९९५)
यादों पे याद के पैबंद लेगे जाते हैं,
देखते-देखते कल आज में बदल जाते हैं.
कहो कैसे प्यार औ वादे निभाए जाते हैं,
जिनको चाहा वो गिरगिट से बदल जाते हैं.
नये चेहरे से डरता हूँ पुराने याद आते हैं,
कुछ लोग हैं ऐसे जो रिश्ते भूल जाते हैं.
एक पल गुजारना भी दूभर हो जाता है,
गुजरे हुए किस्से, जब याद आते हैं.
सभी को संजोना मुमकिन नहीं लगता,
एक के एक रफते से गुजर जाते हैं.

खुदा (२२-अप्रैल-१९९५)

बहुत बार तेरा भी नूर मैंने देखा,
मगर दिल में सुबह-इ-हरम जल रहा था.
मेरा दर्द दिल में दफ़न हो गया,
जुबान पे तू खुद ब खुद आ रहा था.
मेरे सिसक में भी तू ही छिपा था,
मेरी खिशी में भी तू हंसा था.
शायद  मैं तुम से दूर हो गया था,
इसलिए तुमने दर्दे दिल दे दिया था.

जहाँ (१५-मे-१९९५)
इस जहाँ को सच न समझना, ये झूठा फ़साना है. 
इसे गलती से जन्नत न समझ लेना, ये गम का आशियाना है.
आहात के दर्द को, फितरत समझ हँसता है,
अपनी फितरत को, नेकी का शिला कहता है.
गुलशन में मुस्कुरा हमराह बनता है,
वीराने में पहचनने तक से इनकार करता है.
मेरी तम्मनाओं की बुनियाद पर अपनी विला बनता है,
उस तरफ मेरे रुख करने पे भी एतराज़ करता है.
वक्त के मारे को दीवाना समझता है,
मै तो सकी था मुझे मैकस समझता है.

साथ १५-जुलाई-१९९५
पहले तो कुछ उम्मीद थी, आब वो भी फ़ना हो गयी,
कुछ यादें दर्दें दे मुझे, खुद से भी जुदा हो गए.
कोई अफशोश न होता, साथ चाँद लम्हा गुज़ारे न होते,
कुछ वक्त साथ गुजर कर, अश्क औ तड़प दे गए.
तुझसे था अनजान अच्छी थी वो दुरी,
छोटी सी दूरी पात कर, लम्बी सी खाई कर गए.
सुर्ख लाली जिस चमन से पाई थी तुने,
चमन, चमन ही रहा, तू ही हाफ़िज़ हो गए.

वो ८-जुलाई-1995
मेहरबान हो बहुत , बस ख्वाबें ही दिखाई,
पर न दिए, सिर्फ परिंदे ही दिखाई.
तड़प के कह रहा हूँ आज, मैं हासिल करूंगा,
हर ख्वाब सुनहरी जिसने दिन रात रुलाई.
मुझे तुमसे कोई गिला नहीं तो हमदर्दी भी नहीं,
वक्त से मुझे वैसे ही बहुत दर्द मिलें हैं.
तेरी हमदर्दी तुझे मुबारक हो,
उन हंसते हुए चेहरों से बहुत रस्क होता है.
तेरे इशारों  पे वक्त भी भले मेरा साथ न दे,
हर कदम उठती रहेगी मंजिलों को पाने को.
तुम अपनी अमानत भी बाखुशी वापस ले सकते हो,
मैं इंतज़ार करूंगा बाद के अनज़ामों का.

मजिल (११-अगस्त-१९९५)
मेरे हसरत जल कर ख़ाक हो गए,
गैर तो गैर अपना भी अपना न हुआ.
वैसे भी ये दिल कभी गम से खाली न हुआ,
कभी ओठ मुस्कुराई तो आँखे हंस न सकी.
कुछ क्षण का जो कभी सुकून मिला,
आँखे तो हंसी मगर लैब हील न सके.
ज़माने से ठोकरें ही ठोकरें मिलती रही,
मैं तड़प तदप के भी जीता ही रहा.
बेबसी के दिखाए नक़्शे कदम पर चलता ही रहा,
पलकें जो खुली तो मंजिल करीब थी.

रिश्ते (११-अगस्त-१९९५)
किसी शाख पर खिला कोई गुल हो,
ये रिश्ते कुछ ऐसे हंसी लग रहे थे,
मगर कुछ ऐसा फ़साना था उनका,
कुहांसे में सूरज, चंदा से दिख रहे थे.
माना की मुझे जरुरत थी,
मगर वो तो जरुरत मंद न थे.
किसी चटक की तरह मैं जी लेता,
अब दिखावे की तड़प से घायल हूँ.
उन्होंने तो तरस खाई होगी,
मैंने ही हकीकत समझा था.
उन्होंने तो खुद बेहतर ही किया,
मैं नसीब का मारा, कुछ और नहीं.

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